भक्ति में विपत्तियाँ आती हैं, घबराएँ नहीं – श्री त्रिपुरदास जी की कहानी
श्री त्रिपुरदास जी का जीवन भक्ति, सेवा और त्याग का अद्वितीय उदाहरण है। वे बचपन से ही भक्ति के संस्कारों से परिपूर्ण थे और प्रभु प्रेम में रमने की अदम्य लालसा रखते थे। उनकी कथा हमें यह सिखाती है कि जब एक भक्त सच्चे प्रेम से भगवान की आराधना करता है, तो स्वयं भगवान भी उसकी सेवा स्वीकार करने के लिए बाध्य हो जाते हैं।
इस प्रेरणादायक कथा में हम जानेंगे:
- त्रिपुरदास जी का प्रारंभिक जीवन
- श्रीनाथजी के प्रति उनका गहरा प्रेम
- वल्लभाचार्य जी से प्राप्त दीक्षा
- संत सेवा और श्रीनाथजी के लिए उनके विशेष उपहार
- कठिनाइयों में भी अडिग भक्ति
- श्रीनाथजी द्वारा उनकी भक्ति को स्वीकार करना
आइए, इस अद्भुत कथा में गहराई से प्रवेश करें।
श्री त्रिपुरदास जी का जन्म और प्रारंभिक जीवन
श्री त्रिपुरदास जी का जन्म ब्रजमंडल के शेरगढ़ में हुआ था। उनके पिता राज्य के एक सम्मानित राजमंत्री थे। बाल्यकाल से ही त्रिपुरदास जी में भक्ति के संस्कार गहरे रूप से विद्यमान थे। वे न केवल धार्मिक वातावरण में पले-बढ़े बल्कि उनकी आत्मा भी ईश्वर की ओर आकृष्ट थी।
पिता के साथ गिरिराज गोवर्धन की यात्रा
एक बार त्रिपुरदास जी अपने पिता के साथ आगरा से गिरिराज गोवर्धन आए। वहां उन्होंने श्रीनाथजी के दिव्य दर्शन किए। ठाकुरजी की मोहक मूर्ति को देखकर वे इतने मंत्रमुग्ध हो गए कि उनका हृदय प्रभु प्रेम से भर उठा। उन्होंने उसी क्षण निश्चय कर लिया कि अब वे वापस नहीं जाएंगे और जीवनभर श्रीनाथजी की सेवा करेंगे।
जब उनके पिता ने देखा कि त्रिपुरदास जी घर लौटने को तैयार नहीं हैं, तो उन्होंने वहां अपने एक परिचित से कहा कि वे कुछ समय के लिए बालक को अपने पास रख लें। त्रिपुरदास जी के पिता अपने पुत्र को छोड़कर वापस लौटने लगे, लेकिन दुर्भाग्यवश रास्ते में शत्रु दल के सैनिकों ने उन पर हमला कर दिया और उनकी हत्या कर दी।
त्रिपुरदास जी का प्रभु को अपना सर्वस्व मानना
जब त्रिपुरदास जी को यह समाचार मिला कि उनके पिता अब इस संसार में नहीं रहे, तो उन्होंने श्रीनाथजी की ओर देखा और कहा:
“अब आप ही मेरे पिता, मित्र और सब कुछ हैं।”
उनके हृदय में एक अनोखी शांति और आनंद का संचार हुआ। उन्होंने अपने सांसारिक पिता को खो दिया था, लेकिन उन्हें अपने सनातन पिता श्रीनाथजी का सान्निध्य मिल गया था। अब उनका विश्वास केवल ठाकुरजी पर था और वे निश्चिंत होकर उनके श्रीचरणों में समर्पित हो गए।
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वल्लभाचार्य जी का सान्निध्य और दीक्षा
महाप्रभु वल्लभाचार्य जी से भेंट
त्रिपुरदास जी प्रतिदिन श्रीनाथजी के दर्शन करते और भाव-विभोर होकर प्रभु के समक्ष रोते रहते। एक दिन महाप्रभु वल्लभाचार्य जी, जो श्रीनाथजी की सेवा के प्रवर्तक थे, गिरिराज जी की यात्रा पर आए। उन्होंने देखा कि यह बालक श्रीनाथजी के सामने रो रहा है।
जब वल्लभाचार्य जी को पता चला कि यह एक राजमंत्री का पुत्र है, जिसने प्रभु प्रेम के कारण अपने सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया है, तो वे बहुत प्रसन्न हुए। त्रिपुरदास जी ने उनके चरणों में साष्टांग दंडवत प्रणाम किया और कहा:
“प्रभु, मैं अनाथ हूँ। मेरे नाथ केवल श्रीनाथजी ही हैं। मुझे अपनी शरण में ले लीजिए।”
वल्लभाचार्य जी ने उन्हें दीक्षा देकर अपनी शिष्य परंपरा में सम्मिलित कर लिया। उन्होंने त्रिपुरदास जी को सेवा, ध्यान, भजन, और संत सेवा का उपदेश दिया। कुछ समय बाद वल्लभाचार्य जी ने उन्हें आज्ञा दी कि वे अपने पिता की नगरी लौट जाएँ और वहीं रहकर श्रीनाथजी की सेवा करें।
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त्रिपुरदास जी का संत सेवा और श्रीनाथजी के प्रति समर्पण
राजमंत्री का पद और संत सेवा
कुछ समय बाद, राजा ने त्रिपुरदास जी को उनके पिता के पद पर नियुक्त कर दिया और वे राजमंत्री बन गए। लेकिन उनके मन में सांसारिक भोगों की कोई लालसा नहीं थी। वे जानते थे कि धन का वास्तविक उपयोग भगवान और संतों की सेवा में ही है।
उन्होंने यह संकल्प लिया कि:
✅ वे अपनी सम्पत्ति का उपयोग केवल संतों और गौसेवा में करेंगे।
✅ हर वर्ष श्रीनाथजी के लिए रत्नजड़ित पोशाक बनवाकर भेजेंगे।
✅ उनके घर में नित्य संतों का आगमन होगा और उन्हें प्रेमपूर्वक भोजन कराया जाएगा।
उनका यह नियम श्रीनाथजी को भी अत्यधिक प्रिय था। जब भी त्रिपुरदास जी द्वारा भेजी गई पोशाक ठाकुर जी को पहनाई जाती, तो वे असीम आनंद प्रकट करते।
त्रिपुरदास जी पर विपत्तियों का पहाड़
राजा द्वारा संपत्ति जब्त
त्रिपुरदास जी की लोकप्रियता देखकर कुछ ईर्ष्यालु लोगों ने राजा से शिकायत की कि वे राजकोष का धन संतों को खिलाने और ठाकुरजी की सेवा में खर्च कर रहे हैं। राजा ने उनकी संपत्ति जब्त कर ली, जिससे उनके पास भोजन तक के लिए कुछ भी नहीं बचा।
लेकिन त्रिपुरदास जी विचलित नहीं हुए। उन्होंने सोचा,
“धन रहेगा तो ठाकुर जी की सेवा करूंगा, लेकिन अगर धन नहीं भी रहेगा तो भी मैं सेवा का नियम नहीं तोड़ूंगा।”
श्रीनाथजी के लिए पोशाक भेजने की दृढ़ता
सर्दी का समय आ गया और त्रिपुरदास जी ने सोचा कि इस बार भी ठाकुर जी के लिए पोशाक भेजनी चाहिए। लेकिन अब उनके पास धन नहीं था। तब उन्होंने अपने घर में रखी एक पीतल की दवात बेची, जिससे उन्हें एक रुपया मिला।
उन्होंने उसी धन से एक सादा कपड़ा खरीदा और उसे लाल रंग में रंगकर श्रीनाथजी के लिए पोशाक तैयार की। लेकिन उनकी दीनता इतनी अधिक थी कि वे स्वयं वह वस्त्र अर्पित करने नहीं गए।
श्रीनाथजी का प्रेम: भक्त की सेवा स्वीकार करना
जब वह वस्त्र श्रीनाथजी के भंडार में पहुँचा, तो उसे पोशाकों को लपेटने के लिए रख दिया गया। लेकिन जैसे ही सर्दी बढ़ी, श्रीनाथजी काँपने लगे और बोले, “मुझे बहुत ठंड लग रही है!”
विट्ठलनाथ जी को जब यह ज्ञात हुआ कि त्रिपुरदास जी इस बार पोशाक नहीं भेज सके, तो उन्होंने उसी कपड़े से ठाकुर जी के लिए पोशाक बनवाई।
जैसे ही श्रीनाथजी ने वह वस्त्र धारण किया, वे प्रसन्न होकर मुस्कुराने लगे और बोले, “अब मेरी सर्दी दूर हो गई।”
निष्कर्ष
श्री त्रिपुरदास जी का जीवन हमें यह सिखाता है कि भगवान को केवल प्रेम चाहिए, धन नहीं। सच्ची भक्ति वही है जिसमें भाव, समर्पण और त्याग हो। त्रिपुरदास जी की यह कथा हमें यह प्रेरणा देती है कि सुख-दुख में समान भाव रखते हुए प्रभु सेवा और भक्ति के मार्ग पर अडिग रहना चाहिए।
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