रामदास जी की अद्भुत भक्ति: आखिर क्यों ठाकुर जी मंदिर से अपना सामान बांधकर भागने लगे
परिचय
भक्ति वह शक्ति है जो भगवान को भी अपने भक्त का सेवक बना देती है। इतिहास में ऐसे कई उदाहरण हैं जब भगवान ने अपने भक्तों की पुकार सुनकर उनके लिए नियम और रीति-रिवाजों की सीमाएँ भी तोड़ दीं। ऐसी ही एक प्रेरणादायक कथा है रामदास जी की, जिनकी निष्कलंक और अनन्य भक्ति ने स्वयं द्वारकाधीश श्रीकृष्ण को उनके साथ चलने के लिए बाध्य कर दिया।
रामदास जी एक साधारण लेकिन परम भक्त व्यक्ति थे, जिनकी भक्ति में प्रेम, समर्पण और त्याग का चरम उदाहरण देखने को मिलता है। वे हर एकादशी को द्वारिकाधीश के दर्शन के लिए नंगे पाँव लंबी यात्रा करते, रातभर भजन-कीर्तन करते और कपाट खुलते ही ठाकुर जी के दर्शन कर उनकी भक्ति में भाव-विभोर हो जाते।
रामदास जी की अनन्य भक्ति
रामदास जी के लिए द्वारिका की यात्रा सिर्फ एक धार्मिक कर्तव्य नहीं थी, बल्कि उनका संपूर्ण जीवन इसी यात्रा के लिए समर्पित था। उनका नियम था कि वे हर एकादशी को द्वारिकाधीश के दर्शन करेंगे, चाहे कितनी भी कठिनाइयाँ क्यों न आएँ।
वे अपने आराध्य के दर्शन करने के लिए हजारों मील पैदल चलते, रातभर भजन-कीर्तन में लीन रहते और एकादशी की सुबह जब कपाट खुलते, तो भगवान को देखकर उनकी आँखें अश्रुपूरित हो जातीं।
रामदास जी की भक्ति केवल बाह्य रूप से की जाने वाली उपासना तक सीमित नहीं थी, बल्कि वह उनके हृदय की गहराइयों से प्रवाहित होती थी। जब वे ठाकुर जी के दर्शन करते, तो ऐसा प्रतीत होता मानो वे भगवान को अपने हृदय में समा रहे हों।
स्वप्न में ठाकुर जी का प्रकट होना
रामदास जी की भक्ति को देखकर भगवान को दया आ गई। उन्होंने सोचा, “मेरा यह भक्त इतनी कठिन यात्रा करता है, लेकिन मैं उसके कष्ट को कम नहीं कर पा रहा हूँ।”
एक रात ठाकुर जी उनके स्वप्न में प्रकट हुए और बोले,
“रामदास, तुम इतनी कठिन यात्रा क्यों करते हो? तुम्हें बहुत कष्ट होता है।”
रामदास जी ने उत्तर दिया,
“हे प्रभु! यह यात्रा मेरे लिए कष्ट नहीं, बल्कि सबसे बड़ा आनंद है। जब तक मैं आपकी शरण में आकर आपके दर्शन नहीं कर लेता, तब तक मुझे चैन नहीं आता।”
भगवान ने प्रेमपूर्वक कहा,
“मुझे तुम्हारी पीड़ा सहन नहीं होती। जब तुम कष्ट में होते हो, तो मुझे भी कष्ट होता है।”
यह सुनकर रामदास जी की आँखों में आँसू आ गए। उन्होंने कहा,
“प्रभु! यदि अगली एकादशी को मुझे आपके दर्शन नहीं हुए, तो मेरे प्राण निकल जाएँगे।”
भगवान ने एक क्षण विचार किया और फिर बोले,
“तो ठीक है, हम तुम्हारे साथ चलेंगे।”
रामदास जी यह सुनकर भाव-विह्वल हो गए।
( इसे भी पढे- मां शाकंभरी देवी की परम आनंदमयी कथा )
भगवान का निर्णय: भक्त के साथ चलने की इच्छा
रामदास जी घुटनों के बल बैठकर बोले,
“प्रभु! मैं तो अत्यंत निर्धन व्यक्ति हूँ। मेरे पास आपको रखने के लिए कोई उचित स्थान भी नहीं है। मैं कैसे आपको अपने साथ ले जा सकता हूँ?”
भगवान मुस्कुराए और अपनी एक छोटी-सी पोटली दिखाते हुए बोले,
“हम पहले से ही तैयार हैं। देखो, इस पोटली में मैंने अपनी पीतांबरी, मुकुट और अन्य वस्त्र रख लिए हैं। हम तुम्हारे घर चलेंगे और वहीं रहेंगे।”
रामदास जी को विश्वास ही नहीं हो रहा था कि स्वयं द्वारकाधीश उनके साथ चलने को तत्पर हैं।
( इसे भी पढे- सबरीमाला मंदिर के रहस्य: भगवान अयप्पा की कथा और 41 दिनों की कठिन तपस्या का महत्व )
द्वारिका से डाकोर की ओर यात्रा
रामदास जी ने बैलगाड़ी की व्यवस्था करने का प्रयास किया, लेकिन उन्हें केवल एक टूटी-फूटी बैलगाड़ी और बूढ़े बैल मिले। वे इसे लेकर द्वारिका पहुँचे।
जब ठाकुर जी ने बैलगाड़ी देखी, तो बोले,
“रामदास, त्रिलोकी का भार उठाने वाला मैं इस बैलगाड़ी पर बैठूँगा, तो तेरे बैल दब जाएँगे!”
रामदास जी बोले,
“प्रभु! यही मेरे पास उपलब्ध है।”
भगवान मुस्कुराए और बोले,
“कोई बात नहीं, तुम पीछे बैठो, मैं बैलगाड़ी हाँकूँगा।”
इस प्रकार, स्वयं भगवान ने बैलगाड़ी हाँकी। जैसे ही उनके हाथों ने लगाम पकड़ी, बैलगाड़ी और बैल दोनों ही नवयुवक हो गए और तीव्र गति से चलने लगे।
ठाकुर जी का मंदिर छोड़ना और पुजारियों का विरोध
जब सुबह हुई, तो द्वारिका के पुजारियों ने देखा कि मंदिर में ठाकुर जी नहीं हैं। पूरे नगर में हाहाकार मच गया। जब उन्होंने देखा कि रामदास जी बैलगाड़ी में जा रहे हैं, तो उन्हें रोक लिया।
पुजारियों ने उनसे पूछा,
“ठाकुर जी कहाँ हैं?”
रामदास जी ने कहा,
“मुझे नहीं पता।”
लेकिन तभी बैलगाड़ी के एक कोने में ठाकुर जी की पीतांबरी का एक टुकड़ा फँसा मिला। यह देखकर पुजारियों ने उन्हें पीटना शुरू कर दिया।
रामदास जी अधमरे हो गए, लेकिन तभी ठाकुर जी प्रकट हुए और बोले,
“जब तुम मेरे भक्त को मारते हो, तो मुझे भी पीड़ा होती है।”
पुजारियों ने देखा कि जहाँ-जहाँ रामदास जी को चोट लगी थी, वहीं-वहीं ठाकुर जी के शरीर से भी रक्त बह रहा था।
डाकोर में ठाकुर जी की स्थापना
रामदास जी ठाकुर जी को लेकर डाकोर पहुँचे, जहाँ उनकी नई स्थापना हुई। वहाँ वे ‘रणछोड़ राय’ के नाम से प्रसिद्ध हुए।
पुजारियों ने भगवान से कहा,
“अब द्वारिका में आपकी सेवा कौन करेगा?”
भगवान ने कहा,
“मैं तुम्हें अपने भार के बराबर सोना दे दूँगा।”
जब तोलने का समय आया, तो रामदास जी की पत्नी की एक स्वर्ण बाली से भगवान का भार संतुलित हो गया।
भक्ति में सरलता का महत्व
भगवान का संदेश स्पष्ट था—भक्ति में बाहरी तामझाम से अधिक हृदय की सरलता आवश्यक है। जब भक्त निष्कपट प्रेम से भक्ति करता है, तो भगवान स्वयं उसकी सेवा में उपस्थित हो जाते हैं।
निष्कर्ष
रामदास जी की भक्ति ने यह सिद्ध कर दिया कि भगवान केवल भक्ति और प्रेम के वशीभूत होते हैं। वे भक्त के प्रेम के आगे स्वयं को भी समर्पित कर देते हैं।
FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)
-
रामदास जी कौन थे?
- वे द्वारिकाधीश के अनन्य भक्त थे, जिनकी भक्ति के कारण भगवान स्वयं उनके साथ रहने चले गए।
-
डाकोर धाम का क्या महत्व है?
- यह वही स्थान है जहाँ ठाकुर जी स्वयं रामदास जी के साथ आए और रणछोड़ राय के रूप में प्रतिष्ठित हुए।
-
भगवान ने पुजारियों को कैसे आश्वस्त किया?
- उन्होंने अपने भार के बराबर सोना देकर उनकी चिंता दूर की।
-
भक्ति में सबसे आवश्यक गुण क्या है?
- सरलता, समर्पण और निष्कलंक प्रेम।