कबीरदास जी और उनके जीवन की प्रेरणादायक कथा
कबीरदास जी भारतीय संत परंपरा के एक महान संत और कवि थे, जिनकी भक्ति, साधना और जीवन के प्रति दृष्टिकोण ने समाज को नई दिशा दी। कबीरदास जी का जीवन सादगी, सत्य, और प्रेम पर आधारित था। उनकी साधना इतनी गहन थी कि उनकी प्रसिद्धि दूर-दूर तक फैल गई थी। उनके जीवन से जुड़ी कई कहानियाँ हमें यह सिखाती हैं कि कैसे विपरीत परिस्थितियों में भी धैर्य और ईश्वर में अटूट विश्वास बनाए रखना चाहिए। इसी संदर्भ में रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बंगला में एक सुन्दर खण्डकाव्य लिखा, जो कबीरदास जी के जीवन की एक अनूठी घटना पर आधारित है। इस कथा के अनुसार कबीरदास जी मगहर में रहते थे और वहाँ के बाजार में कपड़ा बेचने आते थे।
साधना में विघ्न और भगवान से प्रार्थना
कबीरदास जी के भक्तों की संख्या दिन-प्रतिदिन बढ़ने लगी थी। लोग उनके पास आकर उनकी शिक्षाओं को सुनने और उनका आशीर्वाद लेने आते थे। लेकिन कबीरदास जी की साधना में इससे विघ्न पड़ने लगा। उन्हें अब भगवान से एकांत में बात करने का समय नहीं मिल पा रहा था। कबीर जी को यह महसूस हुआ कि भीड़ और प्रतिष्ठा ने उन्हें उनके एकांत से दूर कर दिया है, जहाँ वे अपने भगवान से संवाद करते थे।
एक दिन, कबीरदास जी ने भगवान से मन ही मन प्रार्थना की, “हे प्रभु! मुझे इस भीड़ से बचाइए ताकि मैं आपसे एकांत में मिल सकूं और अपनी साधना जारी रख सकूं।” भगवान ने उनकी प्रार्थना सुन ली और कुछ ऐसा घटित किया जिससे कबीरदास जी की यह इच्छा पूरी हो गई।
षड्यंत्र और वेश्या द्वारा आरोप
कुछ षड्यंत्रकारी लोगों ने एक योजना बनाई और इसमें एक वेश्या को शामिल किया। यह तय किया गया कि वेश्या बाजार में जाकर कबीर पर झूठे आरोप लगाएगी, जिससे कबीर की प्रतिष्ठा धूमिल हो जाए और उनके पास आने वाली भीड़ छँट जाए। योजना के अनुसार, जब कबीर जी बाजार में कपड़ा बेचने आए, तो वह वेश्या उनके पास आई और बीच बाजार में उनका पल्ला पकड़कर उन पर आरोप लगाने लगी। उसने कहा, “तूने मुझे रखा और अब इस हालत में मुझे छोड़ दिया।”
यह सुनकर जो लोग वहाँ मौजूद थे, वे हँसने लगे और ताली बजाने लगे। लोगों को लगा कि कबीरदास जी की असलियत अब सामने आ गई है। जो भक्त उनके पास आते थे, वे भी शर्मिंदा हो गए और कुछ वहाँ से भाग गए। कबीरदास जी अकेले रह गए, और वहाँ केवल वे लोग बचे थे जो उनका उपहास कर रहे थे।
कबीर का धैर्य और वेश्या का हृदय परिवर्तन
कबीरदास जी इस पूरी स्थिति को शांत भाव से देख रहे थे और मन ही मन मुस्कुरा रहे थे। उन्हें एहसास हो गया था कि यह सब भगवान की ही लीला है, जिन्होंने उनकी प्रार्थना सुनी है। उन्होंने वेश्या से कहा, “हाँ, मुझसे बड़ी भूल हो गई। अब तू मेरे साथ चल।” इस पर लोग और भी विश्वास करने लगे कि वेश्या की बात सच है। कबीरदास जी उसे अपनी कुटिया पर ले गए और माला देकर कहा, “बेटी! अब तू यहाँ बैठ और राम का नाम जप।”
वेश्या को कबीरदास जी के साथ समय बिताने का मौका मिला और उनके पवित्र व्यक्तित्व ने उसके मन में बदलाव ला दिया। अगले दिन वेश्या ने कबीरदास जी के चरणों में गिरकर उनसे माफी माँगी और कहा, “महाराज, मैं बहुत बड़ी अपराधिनी हूँ। मुझे क्षमा करें।” कबीरदास जी ने उसे क्षमा करते हुए कहा, “तू भगवान की भेजी हुई है और तूने मेरी रक्षा की है। अब तू यहीं रह और राम का नाम जपती रह।”
काशी नरेश का बुलावा और अपमान
इसी दौरान काशी के राजा ने कबीरदास जी को अपने दरबार में बुलवाया। जब कबीरदास जी को बुलाने के लिए नरेश के मंत्री आए, तो उन्होंने कहा, “हम नहीं जायँगे। हमारी तो यह हालत है।” लेकिन मंत्री यह कहकर उन्हें ले गए कि यदि आप नहीं जायेंगे तो महाराज नाराज होंगे। कबीरदास जी ने वेश्या को भी अपने साथ चलने का आग्रह किया। जब कबीरदास जी और वेश्या काशी नरेश के दरबार पहुँचे, तो लोगों ने वेश्या को उनके साथ देखकर उनका अपमान किया। राजा ने कबीरदास जी को दरबार से बाहर निकालने का आदेश दिया।
वेश्या का पश्चात्ताप और कबीर की अनुकम्पा
राजा के दरबार से अपमानित होकर बाहर आने के बाद, वेश्या के मन में गहरा पश्चात्ताप हुआ। उसने सोचा कि उसने एक महान संत का अपमान करवाया है और यह उसकी सबसे बड़ी गलती है। उसने कबीरदास जी के चरणों में गिरकर माफी मांगी। इस पर कबीरदास जी ने कहा, “तू मेरी माँ है। भगवान ने तुझे मेरे पास भेजा ताकि मेरी रक्षा हो सके। तूने ही मुझे इस अपमान से बचाया है।”
निष्कर्ष
कबीरदास जी की यह कथा यह दर्शाती है कि सच्चा साधक दुनिया की परवाह नहीं करता। वह भगवान के प्रति अपने प्रेम और समर्पण में तल्लीन रहता है। कबीरदास जी ने अपनी जीवन शैली से यह सिद्ध किया कि सच्चे साधक को कठिन परिस्थितियों में भी अपने विश्वास को मजबूत रखना चाहिए। उनकी कहानी आज भी हमें यह सिखाती है कि कैसे हर परिस्थिति में धैर्य और भगवान के प्रति समर्पण से हम अपनी मंजिल तक पहुँच सकते हैं।