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ठाकुर जी की अनोखी लीला: जब उन्होंने एक वैश्या का मुकुट पहना

ठाकुर जी की अनोखी लीला: जब उन्होंने एक वैश्या का मुकुट पहना

ठाकुर जी की अनोखी लीला: जब उन्होंने एक वैश्या का मुकुट पहना

ठाकुर जी की अनोखी लीला: जब उन्होंने एक वैश्या का मुकुट पहना


परिचय

क्या भगवान किसी जाति, पेशे, पद, या समाज द्वारा निर्धारित मान्यताओं के आधार पर अपने भक्तों को स्वीकार करते हैं? या फिर भक्ति केवल हृदय की पवित्रता पर निर्भर करती है?

यह कथा एक ऐसी स्त्री की है जिसे समाज ने अपवित्र माना, लेकिन उसकी भक्ति इतनी निष्कलंक थी कि स्वयं भगवान ने उसे अपने प्रेम से स्वीकार कर लिया। जब पुजारियों ने उसके समर्पण को अस्वीकार किया, तब भगवान ने अपने भक्त की रक्षा के लिए लीला रची और इस सत्य को प्रमाणित किया कि भक्ति में कोई भी अयोग्य नहीं होता, केवल मन की निष्ठा और प्रेम ही मायने रखते हैं।


संतों का नगर में आगमन

दक्षिण भारत में संतों की एक टोली हरिनाम संकीर्तन करते हुए एक नगर पहुँची। वे प्रभु के नाम का गुणगान करते हुए आगे बढ़ रहे थे कि उन्हें रात बिताने के लिए एक ठिकाने की आवश्यकता पड़ी।

उनकी दृष्टि एक भव्य और सुंदर घर पर पड़ी। उसके बाहर बगीचे में रंग-बिरंगे पुष्प खिले हुए थे, और वातावरण अत्यंत शांतिपूर्ण था। संतों ने वहीं विश्राम करने का निश्चय किया।

यह घर एक नगर वधु (नगर वैश्या) का था। वह स्त्री धन और ऐश्वर्य से समृद्ध थी, लेकिन समाज उसे तिरस्कार की दृष्टि से देखता था। इसे भी पढे- मां शाकंभरी देवी की परम आनंदमयी कथा )


वैश्या की सेवा भावना

जब नगर वधु ने देखा कि उसके घर के बाहर संतों का आगमन हुआ है, तो उसकी आँखों में अश्रु भर आए।

“मेरे जीवन में पहली बार संतों के चरण इस द्वार पर पड़े हैं, यह कितना बड़ा सौभाग्य है!”

वह तुरंत बाहर आई, हाथ जोड़कर संतों को प्रणाम किया और बोली,
“महाराज, यदि आपको किसी चीज़ की आवश्यकता हो, तो कृपया मुझे सेवा का अवसर दें।”

संतों ने कहा,
“हमें कुछ पात्र, दौने और जल की आवश्यकता है।”

नगर वधु दौड़कर घर गई और आवश्यक वस्तुएँ लाकर संतों को अर्पित की। उसने उन्हें भोजन में सहायता की, ठाकुर जी की सेवा में सहयोग दिया, और रातभर भजन-कीर्तन में सम्मिलित रही।

वह आनंदित थी कि उसे संतों की सेवा करने का अवसर मिला।


संतों द्वारा उसकी परीक्षा

सुबह जब संतों को आगे बढ़ना था, तो वैश्या ने उन्हें दक्षिणा देने का संकल्प लिया।

वह सोना, चांदी, वस्त्र और अन्य बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर आई और संतों के समक्ष अर्पित कर दीं।

संतों ने दक्षिणा को स्वीकार करने से पहले पूछा,
“बिटिया, यह धन कैसे कमाया गया है?”

यह सुनकर वैश्या का चेहरा मुरझा गया। उसने सिर झुका लिया और काँपते स्वर में कहा,
“महाराज, मैं एक नगर वधु हूँ। मेरा जीवन समाज के मनोरंजन में बीतता है, और जो धन प्राप्त होता है, उसी से मेरा जीवन यापन होता है।”

संतों ने उसकी ओर देखा। वे जानते थे कि समाज के नियमों ने इस स्त्री को अलग-थलग कर दिया है, लेकिन उन्होंने यह भी देखा कि उसके हृदय में सच्ची भक्ति और समर्पण का दीप प्रज्वलित था।

उन्होंने कहा,
“यदि तुम सच में इस धन को शुद्ध करना चाहती हो, तो इसे ठाकुर जी की सेवा में समर्पित कर दो।”


संपत्ति ठाकुर जी को अर्पित करने का निर्णय

संतों ने कहा,
“यदि तुम अपनी सारी संपत्ति ठाकुर जी को समर्पित कर दो, तो यह धन शुद्ध हो जाएगा। दक्षिण भारत में श्री रंगनाथ भगवान का मंदिर है। वहाँ जाकर अपने जीवन की संपूर्ण कमाई से स्वर्ण मुकुट बनवाओ और भगवान को अर्पित करो।”

नगर वधु को यह सुनकर अत्यंत हर्ष हुआ। उसने तुरंत अपनी संपूर्ण संपत्ति त्याग दी और भगवान के लिए भव्य मुकुट बनाने का संकल्प लिया।


ठाकुर जी के लिए मुकुट अर्पण की यात्रा

50 दिन बाद, मुकुट तैयार हुआ। संतों ने नगर वधु से कहा,
“अब इसे ठाकुर जी को अर्पित करने चलो।”

नाचते-गाते हुए संतों की टोली नगर वधु को लेकर रंगनाथ मंदिर पहुँची।

संतों ने घोषणा की,
“मुकुट ठाकुर जी को पहनाने का अधिकार केवल इस भक्त को मिलेगा।”

लेकिन यह सुनकर मंदिर के पुजारियों में असंतोष फैल गया। उन्होंने कहा,
“एक नगर वधु ठाकुर जी को मुकुट पहनाएगी? यह अनर्थ है!”  ( इसे भी पढे- सबरीमाला मंदिर के रहस्य: भगवान अयप्पा की कथा और 41 दिनों की कठिन तपस्या का महत्व )


अंतिम परीक्षा: जब ठाकुर जी ने स्वयं बुलाया

नगर वधु जब गर्भगृह में प्रवेश करने लगी, उसी क्षण उसे मासिक धर्म हो गया।

वह घबरा गई और मुकुट वहीं रखकर पीछे हट गई।

संतों ने पूछा,
“क्या हुआ?”

उसने रोते हुए कहा,
“मैं अपवित्र हो गई हूँ, मैं ठाकुर जी को मुकुट नहीं पहना सकती।”

अब कुछ पुजारी प्रसन्न हो गए। उन्होंने कहा,
“देखा? यह अनर्थ होना ही नहीं था। ठाकुर जी ने स्वयं इस स्त्री को अस्वीकार कर दिया।”


भगवान का आदेश: केवल वही मुकुट पहनाएगी

जब पुजारियों ने मुकुट उठाने का प्रयास किया, तो वह इतना भारी हो गया कि कोई उसे हिला भी नहीं सका।

संतों ने भगवान की ओर देखा—ठाकुर जी की मूर्ति की आँखों से आँसू बह रहे थे!

संतों ने दौड़कर नगर वधु को बुलाया और कहा,
“भगवान स्वयं तुम्हें बुला रहे हैं। केवल तुम्हारे हाथ से ही मुकुट धारण करेंगे।”

नगर वधु रोते-रोते ठाकुर जी के सामने पहुँची। जैसे ही उसने मुकुट उठाया, वह हल्का हो गया। उसने ठाकुर जी के चरणों में सिर झुकाया और उन्हें मुकुट पहनाया।

उस क्षण ठाकुर जी का मुखमंडल मुस्कुराया और नगर वधु को भगवत धाम प्राप्ति का आशीर्वाद मिला।


निष्कर्ष

यह कथा हमें सिखाती है कि भगवान केवल प्रेम और समर्पण को स्वीकार करते हैं।

समाज चाहे कितने भी नियम बनाए, यदि भक्ति सच्ची हो, तो भगवान स्वयं उसे स्वीकार करते हैं।

ठाकुर जी के लिए केवल मन की पवित्रता मायने रखती है।


FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

1. नगर वधु कौन थी?

2. भगवान ने उसकी भक्ति क्यों स्वीकार की?

3. मुकुट इतना भारी क्यों हो गया?

4. इस कथा से हमें क्या सीख मिलती है?


 

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