कंजूस ब्राह्मण की प्रेरक कथा: भक्ति, दान और पांडुरंग की कृपा

कंजूस ब्राह्मण की प्रेरक कथा: भक्ति, दान और पांडुरंग की कृपा


हमारी सनातन संस्कृति में भक्त की पहचान उसके विचारों, व्यवहार और भावनाओं से होती है, ना कि केवल उसके बाहरी रूप या पहनावे से। यह कथा एक ऐसे ब्राह्मण की है, जिसका नाम तो था ब्राह्मण, परंतु कर्म और स्वभाव से वह पूर्णतः वैश्य था। यह कथा न केवल मनोरंजक है, बल्कि एक गहरा संदेश भी देती है उन सभी को जो आधे मन से भक्ति करते हैं और आधे मन से संसार में रमण करते हैं।

भक्ति में स्थिरता जरूरी है। जो व्यक्ति आधे दिन मंदिर में रहते हैं और बाकी समय सांसारिक लोभ-लाभ में, वे कभी आध्यात्मिक उन्नति नहीं कर सकते। कथा हमें बताती है कि भगवान भक्तों के गुण-दोष नहीं देखते, बल्कि उनके हृदय की भावना को देखते हैं। यह कथा एक कटु सत्य को उजागर करती है—कि भगवान किसी भी क्षण आपके द्वार पर आ सकते हैं, लेकिन क्या आप तैयार हैं उन्हें पहचानने और उनका स्वागत करने के लिए?

कंजूस ब्राह्मण की प्रेरक कथा भक्ति, दान और पांडुरंग की कृपा


पुरंदरपुर गांव का ब्राह्मण

पुणे के निकट स्थित एक छोटा-सा गांव है पुरंदरपुर। यहां एक ब्राह्मण निवास करते थे, जो देखने में तो पूर्णतः ब्राह्मण प्रतीत होते थे—चोटी, तिलक, यज्ञोपवीत, सब कुछ था—परंतु उनके स्वभाव और कर्म पूर्णतः वैश्य जैसे थे। उन्होंने अपना व्यवसाय स्थापित कर रखा था, एक बड़ा गल्ला (दुकान) चलाते थे और सूद (ब्याज) पर पैसा देते थे। उनका मुख्य उद्देश्य था अधिक से अधिक धन संग्रह करना। वह इतने धनी थे कि पूरे गांव को भोजन करा सकते थे, परंतु कंजूसी उनकी रग-रग में थी।

उनके जीवन का उद्देश्य केवल धन संचय और मुनाफा कमाना था। धार्मिक कर्तव्यों से उनका कोई लेना-देना नहीं था। न वे संध्यावंदन करते, न पूजा-पाठ, न ही वेदपाठ—बस सुबह उठकर स्नान करते, तिलक लगाते और सीधे दुकान पर बैठ जाते। उनका धर्म केवल गल्ले की तिजोरी में कैद होकर रह गया था।

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ब्राह्मण की जीवनशैली और नियमों की उपेक्षा

धार्मिक जीवन का उद्देश्य होता है आत्मा की उन्नति। ब्राह्मणों को समाज में आदर्श माना गया है, उनका कर्तव्य होता है वेद अध्ययन, यज्ञ, दान और भक्ति में रत रहना। लेकिन यह ब्राह्मण उन सभी आदर्शों को तिलांजलि दे चुका था। उसका दिन दुकान पर सूद की रकम गिनने और लोगों को धन देकर मुनाफा वसूलने में बीतता था।

न कोई ध्यान, न जप, न कोई भक्ति—बस एक ही धुन थी पैसे की। उसका मन हमेशा इसी गणना में रहता था कि कितना धन किससे वसूलना है। हर चीज को मुनाफे की दृष्टि से देखना उसकी आदत बन चुकी थी। यहीं से उसका पतन भी प्रारंभ हुआ—क्योंकि जो व्यक्ति धर्म से दूर होता है, उसका अंततः पतन निश्चित होता है। इसे भी पढे और जाने- माँ शाकम्भरी देवी कौन हैं )


ब्राह्मण की पत्नी सरस्वती देवी

ब्राह्मण की पत्नी सरस्वती देवी पूर्णतः उसके विपरीत स्वभाव की थीं—संकोची, धर्मपरायण और सच्ची भक्त। उनके पिताजी ने सोचा था कि धनवान ब्राह्मण के साथ विवाह करने से उनकी बेटी सुखी रहेगी, लेकिन नियति को कुछ और ही मंजूर था।

शादी के अगले ही दिन, ब्राह्मण ने सुबह उठते ही कहा—”गहने उतार दो, रोज पहनोगी तो घिस जाएंगे।” पत्नी ने भारी मन से सब गहने उतार दिए—सिर की बिंदियां, गले के हार, हाथ के कंगन, पैरों की पायल—सभी कुछ। सिर्फ एक छोटी-सी नाक की कील बची थी, जिसे सौभाग्य का प्रतीक मानकर सरस्वती देवी ने नहीं उतारा।

लेकिन उसका पति इतना कठोर और कंजूस था कि वह कील भी उसे अखरने लगी। आए दिन ताना देता कि क्यों इसे पहनती हो, इसे भी तिजोरी में रखो। उस कील को भी रोज उतारने का आदेश देने लगा। यहां तक कि वह पत्नी के हाथ का बना भोजन भी छोड़ चुका था—कहता कि जब तक यह गहना पहनती है, मैं इसका भोजन नहीं करूंगा।

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अति कंजूसी की हदें

यह ब्राह्मण केवल कंजूस नहीं था, वह महाकंजूस था। उसकी कंजूसी की हदें इतनी थीं कि अगर दूध में मक्खी गिर जाए तो उसे छानकर पी लेता, और मक्खी पर गिरे दूध की बूंदें भी निचोड़कर पी जाता। वह कहता, “दूध का क्या बिगड़े, फेंकना पाप है।” ऐसा लोभ शायद ही किसी में देखा गया हो।

शादी-ब्याह में भी वह जबरन बुखार का बहाना बनाकर शामिल नहीं होता था क्योंकि वहां गहने पहनने पड़ते थे, और पत्नी को सजाना पड़ता था—यह सब उसे धन की बर्बादी लगता था। उसकी यह प्रवृत्ति उसे न केवल समाज से दूर कर रही थी, बल्कि भगवान से भी।

ठाकुर जी भी कभी-कभी संसार में विचित्र लीलाएं करते हैं। और उन्हें यह ब्राह्मण इतना विचित्र, इतना अति कंजूस लगा कि उनका मन उसमें आकर्षित हो गया। भगवान ने सोचा—”चलो, इसे भी देख लेते हैं, इसकी परीक्षा लेते हैं।

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भगवान का आगमन – साधारण ब्राह्मण के रूप में

भगवान श्री पांडुरंग (विट्ठल) ने सोचा कि इस अति-कंजूस, मगर विचित्र ब्राह्मण की परीक्षा लेनी चाहिए। उन्होंने एक दीनहीन, वृद्ध ब्राह्मण का रूप धारण किया। उनकी धोती फटी हुई, कुर्ता पुराना और मटमैला, सिर पर गंदा-सा जऊ और मुख पर झुर्रियों की भरमार। तिलक तो ऐसा जैसे कई दिनों से धूल में पड़ा हो। वे सीधे चल पड़े उस कंजूस ब्राह्मण की दुकान की ओर।

जैसे ही ठाकुर जी ब्राह्मण के सामने पहुंचे, वह उन्हें देखकर चिढ़ गया। सोचने लगा, “लो, अब ये भी आ गया कुछ मांगने वाला।” ठाकुर जी हाथ जोड़कर बोले, “बाबा, मेरी बेटी की शादी है, कृपा करके कुछ सहायता कर दीजिए।” कंजूस ब्राह्मण तो पहले से ही ताने मारने के लिए तैयार था, बोला, “मेरे पास खुद की हालत खराब है, देखो मेरे कपड़े फटे हैं। मेरे पास कुछ नहीं है, आगे बढ़ो।”

भगवान ने फिर विनती की—”कुछ सामान ही दे दो, विवाह की तैयारी करनी है, बहुत मजबूरी में आपके पास आया हूं।” पर ब्राह्मण ने दो टूक कह दिया—”गिरवी रखो कुछ, तभी मिलेगा।”

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भगवान की विनम्र जिद – भिक्षा नहीं, गिरवी

भगवान भी लीला करने में पीछे नहीं रहते। जब ब्राह्मण ने कहा कि गिरवी रखो, तभी मिलेगा, तो भगवान ने कहा, “मेरे पास कुछ नहीं है, पर मैं दुकान पर सफाई कर दूंगा, कुछ काम कर दूं।” ब्राह्मण बोला, “कामवालों की कमी नहीं है, मैं कोई दान नहीं देता, कुछ मूल्यवान वस्तु लाओ, तभी पैसा मिलेगा।”

ठाकुर जी ने कहा, “ठीक है, मैं कुछ लाने की कोशिश करता हूं।” और वे चल पड़े—सीधे उसी ब्राह्मण के घर की ओर। ( इसे भी पढे- सबरीमाला मंदिर के रहस्य: भगवान अयप्पा की कथा और 41 दिनों की कठिन तपस्या का महत्व )

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सरस्वती देवी की करुणा और नाक की कील

भगवान जब घर पहुंचे, तो द्वार पर खड़े होकर रोने लगे। उनके अश्रुओं की पुकार सुनकर सरस्वती देवी बाहर आईं। उन्होंने देखा कि एक वृद्ध ब्राह्मण रो रहा है, पूरी तरह टूटा हुआ। पूछने पर उसने वही कथा दोहराई—“मेरी बेटी का विवाह है, कोई सहायता नहीं कर रहा, आपसे उम्मीद है। अगर नहीं मिला, तो जहर खा लूंगा।”

सरस्वती देवी का कोमल हृदय पिघल गया। वह स्वयं पति से डरी हुई थी, लेकिन भक्त हृदय कभी किसी दुखी को देख नहीं सकता। उन्होंने अपने गहनों में से एकमात्र बची हुई वस्तु—नाक की छोटी-सी सोने की कील—निकाल कर दे दी। बोलीं, “यह ले जाइए, थोड़ा बहुत मिलेगा, कम से कम आप निराश ना हों।”

भगवान ने भाव से कील ली और बोले, “आपका उपकार कभी नहीं भूलूंगा।”

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ठाकुर जी की वापसी – वही कील लेकर दुकान पर

ठाकुर जी कील लेकर वापस दुकान पर पहुंचे और बोले, “यह देखो, सोने की कील है, इसे गिरवी रखो और कुछ धन दे दो।” ब्राह्मण ने जब कील देखी, वह चौंक गया। यह तो वही कील थी जो उसने अपनी पत्नी को भी पहनने नहीं दी थी।

उसने कई बार ठाकुर जी से पूछा, “यह कील तुम्हें कहां से मिली?” ठाकुर जी ने स्पष्ट कहा—“मूल्य देने की बात की थी, अब कहां से मिली, इससे क्या मतलब? पैसा दो।”

ब्राह्मण ने बेमन से कील लेकर तिजोरी में रखी और ठाकुर जी को कुछ पैसे दिए। ठाकुर जी मुस्कराए और चले गए।


भंडाफोड़ – मुनीम की सूचना और विषपान की तैयारी

जैसे ही ठाकुर जी दुकान से गए, मुनीम दौड़ता हुआ ब्राह्मण के घर पहुंचा। उसने सरस्वती देवी को बताया कि आपने जो कील दी थी, वही आपके पति को ही जाकर के दी गई है। अब वो बहुत गुस्से में हैं और दुकान बंद करके ऊपर आ रहे हैं।

सरस्वती देवी घबरा गईं। उन्होंने तुरंत ठाकुर जी के चित्र के सामने खड़े होकर प्रार्थना शुरू कर दी—“हे पांडुरंग, मेरी रक्षा करो। मैंने तो केवल एक निर्धन ब्राह्मण की सहायता की है, इसके लिए इतनी बड़ी सजा?”

वह इतनी भयभीत हो गईं कि विष का प्याला हाथ में ले लिया। रोते हुए ठाकुर जी से बोलीं, “मैं आपके सामने प्राण त्याग दूंगी। मैंने तो केवल आपकी सेवा की, आपकी दया को पहचाना, पर मेरे पति का क्रोध असीम है।”

जैसे ही उन्होंने विष का प्याला अपने होंठों से लगाया, ऊपर से वही नाक की कील उस पात्र में गिर पड़ी। उन्होंने कील को उठाया, आंखें भर आईं—“हे ठाकुर जी, आप स्वयं आए थे, यह कील आपने लौटाई है।

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पत्नी का सामना और ब्राह्मण की उलझन

जैसे ही वह क्रोधित ब्राह्मण ऊपर आया, सरस्वती देवी के हाथ में वही नाक की कील देखकर स्तब्ध रह गया। उसकी आंखें विस्मय से फैल गईं, गला सूख गया—यह कैसे संभव हो सकता है? जो कील मैंने अभी-अभी तिजोरी में रखी थी, वह यहां कैसे पहुंच गई?

उसने झपट कर पूछा, “ये कील तुम्हारे पास कहां से आई?” सरस्वती देवी बोली, “मेरे पास ही थी, मैंने साफ करने के लिए उतारी थी।”

ब्राह्मण को भरोसा नहीं हुआ। वह चिल्लाया, “तू झूठ बोल रही है! यही कील मैंने उस ब्राह्मण से ली थी, और तिजोरी में बंद कर दी थी। चल, अब सब स्पष्ट हो जाएगा।” इतना कहकर वह दुकान की ओर दौड़ पड़ा, तिजोरी की चाबी उसके हाथ में थी।


तिजोरी का रहस्य और चमत्कारी दर्शन

ब्राह्मण दुकान पहुंचा, थर-थर कांपते हाथों से तिजोरी खोली। लेकिन अंदर कील नहीं थी! वह स्तब्ध रह गया। उसका सिर घूमने लगा। “ये कोई स्वप्न है? कोई छलावा है? नहीं… यह कुछ और ही है।”

वह भागा-भागा घर आया। अब उसमें पहले जैसा क्रोध नहीं था, बल्कि एक गहरा पश्चाताप और संशय था। उसने सरस्वती देवी के चरणों में बैठकर पूछा, “सच-सच बताओ, ये क्या हुआ?”

सरस्वती देवी ने आंखों में आंसू लिए सबकुछ बता दिया—कैसे एक वृद्ध ब्राह्मण रोते हुए आया, कैसे उसने आत्महत्या की धमकी दी, और कैसे उन्होंने दया भाव से नाक की कील उसे दे दी।

ब्राह्मण के तन-बदन में सिहरन दौड़ गई। वह बड़बड़ाया, “तो वो कोई साधारण ब्राह्मण नहीं था… वह तो साक्षात पांडुरंग ही थे!”

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परिवर्तन की चिंगारी – हृदय का क्रांतिकाल

अब उस कंजूस ब्राह्मण का अंतर्मन पूरी तरह बदल चुका था। उसकी आंखों से पश्चाताप के आंसू बहने लगे। उसे समझ आ गया कि भगवान स्वयं उसके द्वार पर आए थे—वो भी भिक्षा मांगने! और उसने उन्हें झिड़क दिया।

उसका दिल भर आया। वह फूट-फूट कर रो पड़ा। “हे ठाकुर! मैं कितना पापी हूं। आप स्वयं मेरे द्वार पर आए, और मैंने आपको दुत्कार दिया। आपने श्रम सहा, अपमान सहा, और फिर भी मुझे अवसर दिया।”

उसने उसी समय निर्णय लिया—अब संसार नहीं, केवल भक्ति ही मेरा मार्ग है।


सबकुछ छोड़कर पंढरपुर की ओर प्रस्थान

ब्राह्मण ने उसी क्षण एक अभूतपूर्व निर्णय लिया। उसने अपनी दुकान, घर, सारी संपत्ति बेच दी। सारी सांसारिक चीजों से मुंह मोड़ लिया। पत्नी सरस्वती देवी के साथ चल पड़ा—सीधे श्री पंढरपुर, भगवान विट्ठल की शरण में।

रास्ते भर वह एक ही बात दोहराता रहा, “हे विट्ठल, आपने मुझ जैसे अधम पर भी कृपा की। मैंने जीवन में ना यज्ञ किया, ना दान, ना जप, ना तप। फिर भी आपने मुझे अपने दर्शन दिए, यह आपकी ही कृपा है।”

जब वह पंढरपुर पहुंचा और भगवान विट्ठल के मंदिर में प्रवेश किया, तो उसकी आंखों से अश्रुधारा बहने लगी। वह वहीं मंदिर में, भगवान की मूर्ति के सामने गिर पड़ा और बोला, “नाथ, मुझे क्षमा करें। अब जीवन का हर क्षण आपका ही होगा।”

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कथा का संदेश – ठाकुर जी की दृष्टि और भक्त की पात्रता

इस कथा से हमें एक अत्यंत महत्वपूर्ण जीवन संदेश मिलता है—ठाकुर जी आपकी स्थिति नहीं, आपका चित्त देखते हैं। वह आपके धन को नहीं, आपके भाव को देखते हैं।

वह व्यक्ति जो जीवनभर कंजूस रहा, जिसने कभी दान-पुण्य नहीं किया, जिसने पत्नी को अपमानित किया, जिसने साधुओं का तिरस्कार किया—उसी के जीवन में ठाकुर जी स्वयं पधारे। क्यों? क्योंकि भगवान केवल अवगुण नहीं देखते—वो किसी में एक गुण भी देख लें, तो उसे उठा लेते हैं।

इसीलिए कहा जाता है—

“मानव वह है जो गुणवान में भी दोष देखे,
पर ठाकुर वह है जो दोषी में भी गुण खोजे।”

अगर आपका मन सच्चा है, और एक क्षण के लिए भी उसमें भगवान के लिए करुणा जाग जाए, तो वही क्षण आपके उद्धार का कारण बन सकता है |


प्रभु की कृपा – अयोग्य में भी योग्य की दृष्टि

इस कथा का सबसे बड़ा संदेश यही है कि ठाकुर जी अपने भक्तों में योग्यता नहीं, भावना देखते हैं। अगर आप सोचते हैं कि “मैं पापी हूं, मुझसे क्या भक्ति होगी?”, तो यह सोच छोड़ दीजिए। भगवान को आपकी परिपूर्णता नहीं, आपकी सच्ची लगन चाहिए।

ठाकुर जी किसी को भी स्वीकार कर सकते हैं—बस शर्त इतनी है कि हृदय से पुकार होनी चाहिए। जब एक अत्यधिक कंजूस, संसारमय ब्राह्मण को भगवान ने अपनाया, तो सोचिए हम जैसे लोग भी भगवान के प्रिय क्यों नहीं हो सकते?


निष्कर्ष: एक रास्ता, एक भक्ति, एक समर्पण

यह कथा केवल एक मनोरंजक प्रसंग नहीं है—यह जीवन का आईना है। हम में से कई लोग ऐसे होते हैं जो भक्ति भी करना चाहते हैं और संसार भी नहीं छोड़ना चाहते। हम कथा में जाते हैं, पर क्लब में भी जाते हैं। हम भगवन्नाम लेते हैं, पर दोष भी देते हैं।

भक्ति एक ठोस निर्णय मांगती है। या तो ठाकुर जी को पूर्णरूपेण अपनाइए, या फिर संसार में डूब जाइए—बीच का मार्ग कभी भी आपको मंजिल तक नहीं पहुंचा सकता।

इसलिए इस कथा का यही आह्वान है:
“एक ठोर पकड़ो, चाहे भगवान हो या संसार—but पूरी निष्ठा से।”


FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

1. इस कथा से हमें क्या सीख मिलती है?
इस कथा से हम यह सीखते हैं कि भगवान केवल हमारे बाहरी कर्मों से नहीं, बल्कि हमारे आंतरिक भाव से प्रसन्न होते हैं। अगर हमारी भावना शुद्ध है, तो ठाकुर जी हम जैसे पापियों को भी अपनाते हैं।

2. क्या भक्ति के लिए पहले पवित्र बनना जरूरी है?
नहीं, भक्ति से ही पवित्रता आती है। भगवान तो पतित पावन हैं, वह अयोग्य को भी योग्य बना देते हैं। शुरुआत केवल एक सच्चे हृदय से होनी चाहिए।

3. ब्राह्मण की पत्नी सरस्वती देवी की भूमिका क्यों महत्वपूर्ण है?
वह इस कथा की मुख्य प्रेरणा हैं। उनके त्याग, करुणा और भक्ति भाव ने ही भगवान को आकर्षित किया और अंततः उनके पति को भी धर्म के मार्ग पर ला दिया।

4. क्या ठाकुर जी वास्तव में धरती पर आते हैं?
हाँ, उनकी लीला असीम है। वह जब भी किसी का हृदय पुकारता है, किसी न किसी रूप में आ ही जाते हैं। इस कथा में भी वह साधारण ब्राह्मण बनकर आए।

5. क्या हमें भी ऐसा परिवर्तन संभव है?
बिल्कुल। हर व्यक्ति के जीवन में एक मोड़ आता है, जब वह अपने अंदर झांकता है। अगर उस क्षण आप भगवान की ओर मुड़ जाएं, तो वही क्षण आपकी मुक्ति का कारण बन सकता है।


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🙏🏻 जय श्री विट्ठल!

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